Friday, April 18, 2025
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*हर दिन इजहार-ए-इश्क का, हर मौसम मोहब्बत का*

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 *इजहार-ए-इश्क का मौसम*

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*हर दिन इजहार-ए-इश्क का, हर मौसम मोहब्बत का*

 

 

एमसी मैरीकॉम के जीवन पर आधारित ‘मैरीकॉम’ फिल्म में एक डायलॉग है… “कभी किसी को इतना भी मत डराओ कि डर ही खत्म हो जाए।” किसी और विषय पर शायद यह डायलॉग पूर्णतया सच ना हो पर प्यार, मोहब्बत के समंदर में डूबे प्रेमी-प्रेमिकाओं पर शत-प्रतिशत सच है। जितना डराएँगे, डर उतना ही दूर चला जाता है। भय, निर्भयता में बदलने लगती है।

कालजयी फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ में भी अनारकली को धमकी देते हुए अकबर कहते हैं- “अंधेरे और बढ़ा दी जाएँ।” तब अनारकली कहती है..”आरजुएँ और बढ़ जाएँगी।”

प्यार, मोहब्बत, इश्क, चाहत, आशिकी के लिए जितनी पाबंदियां लगाई जाती हैं इसका धुआं उतना ही बढ़ता जाता है। वेलेंटाइन डे पर भी यही बातें लागू हो रही हैं। पाश्चात्य संस्कृति की दुहाई देकर जितना विरोध किया जा रहा है, मनाए जाने की संस्कृति उतनी ही जोर पकड़ती जा रही है। शुरू-शुरू तो केवल 14 फरवरी को वेलेंटाइन डे का हो-हल्ला होता था लेकिन अब तो चाकलेट डे, किस डे, हग डे, रोज डे, प्रोमिस डे, टेडी डे और भी न जाने क्या-क्या डे मनाएँ जाने की बातें सुनाई पड़तीं हैं।

प्रेम, मोहब्बत, इश्क के विषय बालीवुड फिल्मों में सदाबहार रहे हैं। समाज में सदैव से ज्वलंत रहने वाले, सुलगते मुद्दे रहे हैं। इस पर न जाने कितनी कहानियाँ कही गईं। कितनी लोककथाएँ, जनश्रुतियाँ, कच्ची-सच्ची, वास्तविक-काल्पनिक रचनाएँ रचीं गईं। विश्व साहित्य में भी प्रेम विषय की प्रमुखता रही है।

ज्ञात ब्रह्मांड में, जहां भी मानव जीवन हो,  उसमें प्रेम का महत्व प्रमुखता से रहा है। मानव जीवन के आदिकाल से लेकर अब तक इश्क की सुलगती तपन कभी कम नहीं हुई। निर्माण और सृजन का प्रमुख कारक रहा है। सदियों से प्रेम मोहब्बत के न जाने कितने तराने गुनगुनाए गए। सदियों से इस पर बातें की जाती रहीं, चर्चाएँ की जाती रहीं, इश्क किया जाता रहा, मोहब्बत की जाती रहीं। संघर्ष किया जाता रहा, कुर्बानियाँ दी जाती रहीं। तमाम तरह की पाबंदियाँ और बंदिशें लगाई जाती रहीं, प्रताड़ना और नफरत के बारुद बोए जाते रहें पर यह उतने ही गुणोत्तर अनुपात से हर काल, देश, समाज और परिस्थितियों में प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा अपनी उपस्थिति दर्ज करायीं जातीं रहीं। न जाने कितने इश्क के कथित गुनहगार सूली पर चढ़ाए गए, न जाने कितनी ही कलियाँ खिलने से पहले ही पत्थरों से मार खा- खाकर मुरझा गईं, न जाने कितनों ने दुनिया की रुसवाईयों से तंग आकर मौत को गले लगा लिया, न जाने कितनों ने अपनी जिंदगी की तमाम खुशियाँ, तमाम जीवन अपने इश्क के नाम कुर्बान कर दिए। बावजूद आज भी कुर्बानियों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। इश्क जारी है…..

युगों से इश्क का वजूद रहा है और सदियों से लोग खिलाफ भी रहें हैं। सदियों से ही मोहब्बत करने वाले मरते-मिटते रहें हैं, सदियों से ही नित नए मोहब्बत के गीत गुनगुनाने वाले पूरे दम-खम के साथ आते-जाते रहें हैं और दुनिया जहान में मोहब्बत की खुशबू फैलाते रहे हैं।

ना नफरत करने वालों ने नफरत में कमी की ना मोहब्बत करने वालों ने मोहब्बत से परहेज किया। मोहब्बत करने वाले करते ही रहे, ना उन्होंने विराम लिया और ना ही इन्होंने विराम लिया है।

आखिर….क्या है ये मोहब्बत?? क्यों होता है ?? कब होता है ?? और कैसे होता है ये ??

कहते हैं “मोहब्बत अंतर्मन का सुखद अहसास है।”

इसे विभिन्न लेखकों, कवियों, विचारकों, चिंतकों, समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है। जरुरी नहीं कि कोई एक विचार दूसरे के विचारों से इत्तेफाक रखे।

विभिन्न परिभाषाओं के बीच किसी ने तो यहाँ तक कहा है कि इसे परिभाषित ही नहीं किया जा सकता, यह सिर्फ एक एहसास है, सुखद एहसास। गुलजार साहब भी कहते हैं – “सिर्फ एहसास है जिसे रुह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।”

सच में इश्क को परिभाषित नहीं किया जा सकता। किसी विशेष परिभाषा से परे है, बंधन से परे है, दायरों से परे है। लाभ-हानि से परे है ही, सच्चा प्यार पाने-खोने की लालसा से भी बहुत परे है। सच्चे प्यार में राधा को प्रेम मिला, प्रेमी नहीं। रुक्मणि को प्रेमी मिला पर प्रेम नहीं। मीरा को न प्रेम मिला न ही प्रेमी फिर भी उसने राजसी जीवन त्याग कर विष का प्याला पीना स्वीकार किया। यही होता है सच्चा प्यार, जहां समर्पण हो, त्याग हो।

जहाँ जीवन धरातल है मृत्यु आकाश। वहीं, इश्क न धरातल है न अनंत आकाश। बल्कि इन्हीं के बीच की कुछ अवस्था है जब सांसें तो चल रही होती हैं लेकिन जान नहीं होतीं, और जान रहकर भी पास कुछ नहीं रह जाता। जब लगे कि जुबान तो हिल रहे हैं लेकिन बातें सुनाई न दें और शोर तो बहुत हो लेकिन कोई बोल न रहा हो। जब किसी की बातों से गुलाब की पंखुड़ियाँ झड़ने लगे। हवाओं में एक खास रवायत महसूसने लगे। बिन पंखों के भी उड़ान भरने लगें और समंदर की लहरें आगोश में समाने लगे। जब सारी दुनिया ही बदली-बदली लगने लगे। जब पाँव जमीं पे न थिरक पाएँ। आसमान के तारे भी आंचल में समाने लगे। जब मृत्यु का भय और जीवन का मोह तुच्छ लगे। तब समझ जाइए आप एक हसीन रोग की चपेट में हैं, इश्क की गिरफ्त में हैं, मोहब्बत के आगोश में हैं। आप किसी के प्यार में हैं।

प्यार की शुरुआत कब से हुई? न किसी ने बताया न सिखाया? न कोई नीति न कोई नियम?  क्या अजीब है मोहब्बत?

कहते हैं विधाता ने धरती पर एक जीव के दो रूप बनाए नर और मादा। तमाम तरह की तकनीक से लैस करने के बाद भावनाओं का साफ्टवेयर फिड करना परमपिता परमेश्वर की सबसे बड़ी खूबी रही है। आपने रोबोट फिल्म जरूर देखी होगी जिसमें मशीन में भावनाएँ फिट कर देने के बाद प्यार का गुबार फूलने लगता है। ठीक वैसे ही आदमी और औरत ने एक-दूसरे को देखा होगा। धरती पर ही स्वर्ग का एहसास करा देने की कूवत मानव मन में पनपी होगी… और यही प्रथम प्रेम रहा होगा।

दुनिया, जहाँन, धरती, आकाश, जीवन, मृत्यु, जन्नत, दोजख, कल्पना, यथार्थ से परे, उन्मुक्त परम आनंद। तब से लेकर अब तक यही एहसास है जो चला आ रहा है।

क्या यह प्रेम किसी को देखकर होता है? और न देखें तो नहीं होता है? क्या यह किसी खास उम्र, अवधि में होता है? क्या यह बाहरी, आंतरिक आकर्षण से होता है? क्या यह हार्मोनल इफेक्ट्स है? या सामान्य प्रक्रिया? क्या किसी खास उम्र, लिंग आधारित होता है ? या यह सभी बंधनों से मुक्त है? उन्मुक्त है? स्वच्छंद है? क्या है ये? इस चिंतन पर ग्रंथ भरे पड़े हैं।

नैतिकता के तमाम दावों पर इश्क का खुमार हावी रहा है। जब इश्क दो दिलों का सुखद एहसास है तो तमाम तरह की बंदिशें क्यों? क्या इश्क के प्रारंभ से कोई नियम रहे हैं? उम्र, जात-पात, धर्म, समाज, रुपए-पैसे, पद-प्रतिष्ठा की दीवारें सदियों से रहें हैं। और इन सब वर्जनाओं को तोड़ने वाले उदाहरण भी समाज में यदा-कदा देखने को मिलते ही रहे हैं। तमाम तरह की प्रताड़ना और सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक जंजीरों को तोड़ कर भी दो दिलों ने एक-दूसरे को गले लगाया है। सदियों से समाज इस महत्वपूर्ण पहलू के नैतिक-अनैतिक दायरे को तय नहीं कर पाया है। इसके पक्ष में बात रखने वालों को उसके अपनों की दुहाई दी जाती रही है और विपक्ष में विचार रखने वालों को मानवता का दुश्मन कहा जाता रहा है। वर्षों के लवयात्रा में कहीं-कहीं समाज कम से कम यहाँ तक ही पहुंच पाया है कि समान जाति-धर्म, उम्र और आर्थिक स्थितियों के प्रेमियों को स्वीकार कर पाए। बाकि अन्य जाति, धर्म, आर्थिक खाई के लिए तो समाज अभी भी गंडासा लिए खड़ा है।

प्रेम करने वाले सदियों से ये गीत गाते रहे हैं – “न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन।” और विगत शताब्दियों से तो प्रेम के ये तराने और भी तेजी से बजने लगे हैं।

एक बात तो तय है कि प्रेम सदियों से रहा है और उन्मुक्त रहा है। बगैर किसी बंधन और शर्त के रहा है। तमाम तरह की बंदिशें तथाकथित सभ्य समाज के आगमन से हुआ है। उन्मुक्त प्रेम को कब सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ा गया यह भी एक सवाल है। अगर सवाल करें तो बहुत से सवाल हैं और जवाबों के भी बहुत से सवाल। सवाल-जवाब के पेंच का सिलसिला खत्म ही न हो और यदि नहीं तो बहती दरिया का निर्मल पानी है इश्क। धरती पर ईश्वर के होने की निशानी है इश्क। इश्क पर जितनी बातें उन बातों के उतनी ही बात। कभी न खत्म होने वाली रवानी है इश्क। कुरान की आयतें गीता की जबानी है इश्क।

मोहब्बत का कोई खास मौसम नहीं, इजहार-ए-इश्क के लिए कोई खास दिन नहीं। हर मौसम मोहब्बत का है, हर दिन इजहार-ए-इश्क का है।

 

-राकेश नारायण बंजारे खरसिया

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