रायपुर
प्रदेश की प्रशासनिक नस मानी जाने वाली राजस्व व्यवस्था पर संकट के बादल और घने हो गए हैं। अपनी 17-सूत्रीय मांगों को लेकर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर गए तहसीलदार और नायब तहसीलदारों के आंदोलन ने आज एक निर्णायक मोड़ ले लिया, जब राजस्व विभाग के आधार स्तंभ माने जाने वाले ‘छत्तीसगढ़ प्रदेश राजस्व लिपिक संघ’ ने उन्हें अपना पूर्ण और खुला समर्थन दे दिया।
लिपिक संघ के प्रदेश सचिव मुकेश कुमार तिवारी द्वारा जारी एक तीखे और तर्कपूर्ण समर्थन पत्र ने न केवल हड़ताली अधिकारियों का मनोबल सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है, बल्कि शासन को भी संवाद के लिए सीधी चुनौती दे दी है।
क्यों उठाना पड़ा हड़ताल जैसा कठोर कदम
बात दे कि यह हड़ताल अचानक नहीं हुई।
‘छत्तीसगढ़ कनिष्ठ प्रशासनिक सेवा संघ’ लंबे समय से अपनी मूलभूत समस्याओं की ओर शासन का ध्यान आकर्षित कर रहा था।
उनकी मांगों में कोई वित्तीय बोझ डालने वाली बड़ी मांग नहीं बल्कि कार्यप्रणाली को सुगम और सुरक्षित बनाने की गुहार है:
न्यायिक संरक्षण का अभाव:
तहसीलदार एक अर्द्ध-न्यायिक अधिकारी होता है, लेकिन अपने ही फैसलों के खिलाफ होने वाले अनावश्यक मुकदमों और दबाव से लड़ने के लिए उनके पास कोई कानूनी कवच नहीं है।
संसाधनहीनता:
आज भी कई तहसीलों में अधिकारियों के पास अतिक्रमण हटाने या निरीक्षण के लिए सरकारी वाहन तक नहीं हैं। डिजिटल इंडिया के दौर में वे पुराने ढर्रे पर काम करने को मजबूर हैं।
असुरक्षित कार्यक्षेत्र
भू-माफियाओं से सरकारी जमीन मुक्त कराना हो या संवेदनशील सीमांकन, इन अधिकारियों को जान का जोखिम लेकर काम करना पड़ता है, लेकिन सुरक्षा के नाम पर अक्सर आश्वासन ही मिलते हैं।
असीमित कार्यबोझ:
राजस्व कार्यों के अलावा चुनाव, आपदा प्रबंधन, प्रोटोकॉल और शासन की अनगिनत योजनाओं का बोझ भी इन्हीं के कंधों पर है, जिससे कार्य-जीवन का संतुलन बिगड़ चुका है।
आम जनता पर सीधा असर तहसीलों में पसरा सन्नाटा
इस हड़ताल का सबसे बड़ा खामियाजा प्रदेश की आम जनता भुगत रही है।
आज से प्रदेश की 200 से अधिक तहसीलों और उप-तहसीलों में सन्नाटा पसरा हुआ है।
किसानों के भूमि नामांतरण, बंटवारे और सीमांकन के काम रुक गए हैं।
छात्रों और जरूरतमंदों के आय, जाति और निवास प्रमाण पत्र नहीं बन पा रहे हैं।
संपत्ति की खरीद-बिक्री से जुड़े पंजीयन और राजस्व रिकॉर्ड के काम ठप्प हैं।
राजस्व न्यायालयों में हजारों मामले लंबित हो गए हैं, जिससे न्याय की आस लगाए लोगों का इंतजार और बढ़ गया है।
लिपिक संघ का समर्थन: सिर्फ नैतिक नहीं, एक रणनीतिक बढ़त
राजस्व लिपिक संघ का समर्थन केवल एक औपचारिक घोषणा नहीं है, बल्कि यह इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा है।
प्रदेश सचिव मुकेश कुमार तिवारी ने अपने बयान में कहा, “हम तहसील कार्यालयों में अधिकारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करते हैं। हम उनकी पीड़ा और सिस्टम की खामियों को रोज देखते हैं।
जब एक अधिकारी को बिना संसाधनों के परिणाम देने के लिए मजबूर किया जाता है
तो यह पूरे सिस्टम का अपमान है। इसलिए यह लड़ाई सिर्फ उनकी नहीं, हमारे प्रशासनिक स्वाभिमान की भी है। हम इस लड़ाई में पूरी दृढ़ता से उनके साथ हैं।”
इस समर्थन का मतलब है कि अब शासन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था या दबाव बनाकर काम चलाना लगभग असंभव हो गया है, क्योंकि कार्यालयों का संचालन लिपिकों के बिना नहीं हो सकता। इसने अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच एक अभूतपूर्व एकजुटता प्रदर्शित की है।
अब सरकार के पाले में गेंद
एक तरफ हड़ताल से ठप्प होती प्रशासनिक व्यवस्था और परेशान होती जनता है, तो दूसरी तरफ अपने आत्मसम्मान और अधिकारों के लिए एकजुट हुए अधिकारी-कर्मचारी।
इस गतिरोध ने शासन को एक दोराहे पर खड़ा कर दिया है। अब देखना यह है कि शासन हठधर्मिता छोड़कर संवाद का रास्ता अपनाता है और समस्याओं का सम्मानजनक समाधान निकालता है, या यह टकराव प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए एक लंबी और गंभीर चुनौती बन जाता है।